आम का कलाम
बात उस वक्त की है जब शायरी के पुरोधा गालिब ने शायरी की दुनिया में धमाल मचा दिया था। वे कुछ ऐसे अंदाज में कहते कि शे’र आम लोगों के दिल में उतर जाते थे। लेकिन एक दौर ऐसा आया कि उनकी विद्वता का स्तर बढ़ता चला गया और वो बहुत गूढ़ भाषा में शे’र कहने लगे। ऐसे में बड़े विद्वानों को तो इसमें खूब आनंद आता, लेकिन नये शायर व आम लोगों को समझने में कठिनाई होने लगी। गालिब के कद को देखते उन्हें यह बात कहने का कोई साहस नहीं करता था। लेकिन एक मुशायरे में एक शायर ने पूरी हिम्मत करके बोल दिया कि गालिब एक शे’र मेरा भी सुन लीजिए, ‘अपने कहे को आप ही समझे तो क्या समझे, मजा तो तब है जब आप कहें और लोग समझें।’ ये सुनकर गालिब उसका इशारा समझ गए। सबको लगा कि इस नये शायर ने गालिब की तौहीन कर दी। लेकिन गालिब ने इसे स्वस्थ आलोचना के रूप में स्वीकार किया। उन्होंने कहा, ‘वाकई मेरे बहुत से शे’र सब लोगों के लिए नहीं हैं। मुझे साथ-साथ उनके अर्थों को भी सरल भाषा में बताते रहना चाहिए और पहले की तरह आम लोगों को समझ आने वाले शे’र भी कहते रहना चाहिए।’ सवाल करने वाला गालिब की विनम्रता देख उनके पांव में पड़ गया।
प्रस्तुति : प्रदीप कुमार राय

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