विदेशी निवेश में चीन का विकल्प बनेगा भारत!
इसे चीन का छवि सुधार कार्यक्रम ही कहेंगे। जो चीनी कंपनियां वहां के घरेलू बाज़ारों में माल बेच रही थीं, उन्हें भी कॉमर्स मिनिस्ट्री ने फरमान जारी कर कहा है कि आप सबसे पहले सीई (चाइना एक्सपोर्ट) सर्टिफिकेट हासिल करें, फ़िर कारोबार करें। इससे पहले केवल यूरोप में माल निर्यात के वास्ते चीनी कंपनियों को ‘सीई’ प्रमाणपत्र की आवश्यकता पड़ती थी। मगर, मेडिकल सप्लाई कंपनियों ने चीन के घरेलू बाज़ार से मास्क और रैपिड टेस्ट किट उठाये और यूरोप के 30 से अधिक देशों ब्राज़ील, पेरू, कोलंबिया और अफ्रीका मिलाकर कोई 70 देशों को उन्हें सप्लाई कर दिया। ज़्यादातर ऐसी कंपनियां क्वांगचोउ में हैं, जिनमें वोन्डफो बायोटेक का नाम सबसे ऊपर है। चीन पहली बार ख़राब माल की सप्लाई को लेकर विश्व स्तर पर एक्सपोज़ हुआ है।
पिछले हफ्ते 102 चीनी कंपनियों को सीई प्रमाणन मिला है। इनमें से 21 को अपने प्रोडक्ट चीन के घरेलू बाज़ार में बेचने की अनुमति मिली है। यह सवाल किसी ने पूर्व में नहीं उठाया कि यूरोपीय संघ के देशों में चीनी माल सप्लाई के वास्ते यदि सीई एक्रीडिटेशन अनिवार्य है, तो अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया व दुनिया के दूसरे देशों के वास्ते ऐसा प्रमाणन क्यों नहीं होना चाहिए। इसी झोल-झाल का फायदा उठाकर अधिकांश देशों के सप्लायर्स ने चीनी माल की बृहदाकार सप्लाई चेन तैयार कर ली।
यह दिक्कत लगातार बनी हुई थी कि चीन उस मानक को मेंटेन कर रहा है, या नहीं। वर्ष 2015-16 में ब्रिटेन ने बहुत सारे चीनी माल वापस किये थे, जो ‘सब-स्टैंडर्ड’ थे। ब्रिटेन के ईयू में रहते, 2019 में यूरोपीय संघ के 28 देशों ने सीई प्रमाणन पर सवाल उठाये और उसे ‘बड़ा मज़ाक’ करार दिया। बावज़ूद इस ‘बिग जोक’ के यूरोपीय संघ के 13 देशों ने मार्च, 2019 में चीन के वन बेल्ट-वन रोड इनीशिएटिव पर सहमति जताई थी और एमओयू पर हस्ताक्षर किये थे। मगर, कोरोना संकट के दौर में लगता है कि यूरोपीय संघ के देशों को अपनी गलतियों का अहसास हो रहा है। यह अपने-आप में जांच का विषय है कि स्पेन व चेक गणराज्य जैसे देशों में घटिया टेस्ट किट व मास्क की वजह से मौत की घटनाओं में कितना इज़ाफा हुआ है? संभव है, यह मामला हेग स्थित अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायालय की चौखट पर पहुंच जाए।
सवाल यह कि यूरोप व अमेरिका क्या सचमुच चीन पर निर्भरता का कोई विकल्प ढूंढ़ रहे हैं? आई-फोन की निर्माण यूनिट के भारत ले आने के फैसले से कुछ आशा बंधने लगी है। दुनिया की बड़ी कंपनियांे की बिज़नेस शिफ्टिंग को इस बिनाह पर हम लुभा सकते थे। वर्ष 1979 में चीन में मात्र सौ विदेशी कंपनियांे ने निवेश किया था। 31 साल बाद, 2010 में दुनिया की तीन लाख से अधिक कंपनियां चीनी उद्योग व्यापार में निवेश कर चुकी थीं। शंघाई जैसे शहर के बिजनेस डिस्ट्रिक्ट में 2019 में मैंने देखा कि वहां 4661 नये इन्वेस्टमेंट प्रोजेक्ट रजिस्टर्ड थे। 701 बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने शंघाई में अपना क्षेत्रीय मुख्यालय खोल दिया था, उनमें से 106 ने एशिया-पैसेफिक का हेडक्वार्टर यहां बना रखा था। ऐसे में राष्ट्रपति ट्रंप विगत चार वर्षों में एशिया-प्रशांत में भारत की जो बड़ी भूमिका तलाश रहे थे, क्या वह केवल कागज़ी नहीं है?
शंघाई और मुंबई दोनों पोर्ट सिटी हैं। दोनों शहरों के विकसित होने के वर्ष में बहुत का अंतर नहीं है। 1784 में बांबे आइलैंड, परेल, मजगांव, माहिम, कोलाबा, वरली और लिटिल कोलाबा जैसे सात द्वीपों को मिलाकर देश की आर्थिक राजधानी के रूप में विकसित किये जाने की परिकल्पना की गई थी। आज दोनों शहरों की तस्वीर भर सामने रख दीजिये, तो मन में एक ही सवाल उठता है कि हम मुंबई को शंघाई क्यों नहीं बना सके? सवाल यह भी है कि यदि चीन से अमेरिका, यूरोप की कंपनियां कारोबार समेट कर किसी दूसरे देश में शिफ्ट करना चाहती हैं, तो भारत वह गंतव्य क्यों नहीं बन सकता था?
चीन से बहुराष्ट्रीय कंपनियों को कहीं और ले जाने की कवायद 2019 के मध्यांतर के बाद से आरंभ हो चुकी थी। उसके पीछे महंगा लेबर और व्यापार प्रतिबंध दोनों कारण थे। उदाहरण के लिए ताइपे है। सरकार ने 180 ताइवानी कंपनियों को चीन से कारोबार समेटने के वास्ते 25 अरब डॉलर का सहयोग देना स्वीकार कर लिया है। पिछले हफ्ते जापान ने 2.2 अरब डॉलर का अनुमोदन उन कंपनियों के वास्ते किया है, जो चीन से अपनी यूनिट हटाकर दक्षिण एशिया में जाना चाहती हैं। इन कंपनियों की पहली प्राथमिकता सस्ते लेबर और बेहतर अधोसंरचना से लैस दक्षिण-पूर्वी एशिया के देश हैं।
26 अप्रैल, 2020 को यूरोपियन यूनियन ट्रेड कमिश्नर फिल होगन ने चीन का नाम लिये बग़ैर बयान दिया था कि 27 देशों का हमारा ब्लॉक सप्लाई और कारोबार के लिए किसी एक देश पर निर्भर रहना नहीं चाहता। तीन महीने का कोरोना कालखंड बनी रूपरेखा दिखा रही है कि जापान, अमेरिका और यूरोपीय संघ चीन से व्यापारिक महाभिनिष्क्रमण की योजना बना चुके हैं। ऐसे वक्त हमारे आर्थिक योजनाकारों को इस दिशा में काम करने में क्या दिक्क़त दरपेश हो रही थी?
13 मार्च, 2020 को ब्रसेल्स में ईयू-इंडिया शिखर बैठक थी, जिसमें प्रधानमंत्री मोदी को जाना था। यह बैठक कोरोना संकट की वजह से टल गई। सवाल यह है कि 26 मार्च को जब 84 वर्षीय सऊदी अरब के किंग सलमान 19 देशों और 27 सदस्यीय जी-20 के नेताओं से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिये कोरोना संकट पर विमर्श कर सकते हैं, तो ऐसे ही तकनीकी माध्यम के ज़रिये ईयू-इंडिया शिखर बैठक क्यों नहीं हो सकती थी? चीन का विकल्प बनने का अवसर यही तो था।
वर्ष 2013 में सोलहवें दौर की बातचीत के बाद, फ्री ट्रेड एग्रीमेंट (एफटीए) का मामला ईयू से फंसा हुआ है। बावज़ूद इसके ईयू से कारोबार बढ़ा है। 2018 में ईयू द्वारा जारी आंकड़े बताते हैं कि 92 अरब डॉलर का व्यापार यूरोपीय संघ से भारत का हुआ है। यह भारत के कुल व्यापार का 12.9 प्रतिशत है। उस अवधि में चीन से हमारा व्यापार 10.9 फीसद और अमेरिका से 10.1 प्रतिशत था। यानी, ‘एफटीए’ नहीं होने के बावज़ूद, यूरोपीय संघ हमारा सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर है।
अफसोस, भारत में ज़मीनी तस्वीर आशा के विपरीत है। 2018 में हमारा आर्थिक विस्तार 6.8 प्रतिशत था, वह 2019 में 5.7 फीसद पर आ गया। मूडी ने 2020 में इसके 5.3 प्रतिशत पर आ जाने की भविष्यवाणी कर दी है, मगर यह भी कहा है कि 2021 में जीडीपी ग्रोथ 6.1 प्रतिशत तक बढ़नी है। इस तरह का रिपोर्ट कार्ड विदेशी निवेशकों की सेहत के लिए हानिकारक तो नहीं है?
लेखक ईयू-एशिया न्यूज़ के
नई दिल्ली संपादक हैं।
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